कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के 32 वर्ष बीत गए। पर आज भी वे उन्मादियों के अत्याचार से पीड़ित अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर हैं। आज भी उन्हें अपने साथ घटी उस वीभत्स घटना का स्मरण होने पर उनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उनके भीतर इस कदर डर ने घर कर रखा है कि आज कश्मीर में परिस्थितियां कुछ हद तक ठीक होने के बाद भी वे बिना किसी ठोस सरकारी आश्वासन और सुरक्षा के वापस जाना नहीं चाहते हैं। घाटी में 32 साल पहले पाकिस्तान समर्थित अलगाववादियों के बढ़ते उग्रवाद से पीड़ित पंडितों ने सिर्फ अपने और अपनों की जान बचाने के लिए नौकरी, घर, ज़मीन, आदि सब कुछ छोड़कर देश के दूसरे हिस्सों में शरण ले लिया और आंतरिक रूप से विस्थापित (Internally Displaced People) हो गये।
क्या है मुख्य वज़ह जिससे कश्मीरी पंडितों को रातों रात विस्थापित होना पड़ा?
पंडितों के साथ भेदभाव तब शुरू हुआ जब शेख अब्दुल्ला वर्ष 1977 में चुनाव जीतकर राज्य के मुखिया के पद आसीन हुए। सूबे का मुख्यमंत्री बनते ही उनकी जो सेक्युलर छवि थी, उसको उन्होंने इस्लामिक कट्टरवाद की छवि में परिवर्तित किया और कई जगह कश्मीरी हिंदुओं को 'अन्य लोग' कहकर संबोधित किया। 1982 में शेख अब्दुल्ला की मृत्यु के बाद उनके पुत्र फारुख अब्दुल्ला ने कुर्सी संभाली, लेकिन एक साल बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नेशनल कांफ्रेंस के गुलाम मोहम्मद शाह तथा अन्य नेताओं के साथ मिलकर उस सरकार को गिरा दिया और कांग्रेस समर्थित गुलाम शाह के अगुआई वाली नेशनल कांफ्रेंस की सरकार बना दी।
गुलाम शाह के मुख्यमंत्री बनते ही जगह जगह हिंदुओं पर हमले होने लगे, मंदिरों को तोड़ा जाने लगा, भड़काऊ भाषण दिए जाने लगे और कहा जाता है कि इन कुकृत्यों को बढ़ावा खुद मुख्यमंत्री 'शाह' देते थे, क्योंकि दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं होती थी। इस सरकारी शरण से कट्टरपंथियों के हौसले बुलंद होने लगे। मार्च 1987 के चुनाव में कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस की जीत हुई, जबकि क्षेत्रीय संगठनों से मिलकर बनी 'मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट' की हार हुई, जिसमें सैयद सलाहुद्दीन, यासीन मलिक और सैयद अली गिलानी जैसे आतंकवादी और अलगाववादी शामिल थे।
कश्मीर का इस्लामीकरण
चुनाव में मुस्लिम फ्रंट की हार होते ही पाकिस्तान ने कश्मीर में धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देना शुरू कर दिया। कश्मीर में हिंदुओं के खिलाफ ज़िहाद शुरू करने का हौसला पाकिस्तान ईरान में चल रहे इस्लामिक आंदोलन तथा खाड़ी देशों में चल रहे वहाबी आंदोलनों से मिला। पाक समर्थित 'ज़मात-ए-इस्लामी' और 'जेकेएलएफ' जैसे संगठनों ने हाल के चुनावों से नाखुश कश्मीरी मुस्लिमों को भड़काने का काम किया। जो भी स्वयं को भारतीय कहता तथा भारत के साथ रहने की बात करता, उसके साथ मारपीट किया जाने लगा। जगह जगह दीवारों पर देशविरोधी नारे लिखने शुरू हो गये।
फिर शुरू हुआ कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाना
भारत को कश्मीर से अलग करने तथा भारत सरकार से अपनी बात मनवाने में कट्टरपंथियों ने कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाना शुरू किया। चूंकि घाटी में हिंदू अल्पसंख्यक थे और अधिक शिक्षित होने की वजह से अधिकतर सरकारी नौकरियों और नौकरशाही में उनकी बहुलता थी, लेकिन घाटी में अल्पसंख्यक होने की वज़ह से वे जिहादियों के 'सॉफ्ट टार्गेट' बन गए। भारत के तरफ उनके झुकाव और उनकी तरक्कियों से अलगाववादियों को चिढ़ होने लगी।
1988 तक घाटी में अतिवाद चरम पर पहुंच गया। 'जेकेएलएफ' जैसे संगठनों ने जगह जगह 'कश्मीर में निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा का राज होगा' जैसे नारे लगाने शुरू कर दिए। खुलेआम सार्वजनिक तथा धार्मिक स्थलों से पाक समर्थित स्थानीय आतंकियों और अलगाववादियों के गठजोड़ ने खुद को भारतीय कहने वालों पर अत्याचार शुरू कर दिया। जो भी कश्मीरी पंडितों का साथ देता उसे मार दिया जाने लगा। तत्कालीन पाक प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो ने भी 'जिहाद' छेड़ने का समर्थन किया। आईएसआई ने कश्मीर में मदरसों से लड़कों को पकड़ कर उन्हें एक समुदाय के खिलाफ भड़काया और अपने ही देश की सरकार से लड़ने के लिए उनके हाथों में बंदूकें दे दीं।
कश्मीरी पंडित समुदाय के प्रमुख लोगों की हत्याओं से दहल गया कश्मीर
वर्ष 1989 में आतंकियों ने खूनी खेल शुरू कर दिया। उन्होंने हिंदू समुदाय के प्रमुख लोगों को निशाना बनाया, ताकि समुदाय के आम लोगों के भीतर भय व्याप्त हो। 13 सितंबर को स्थानीय बीजेपी नेता एवं वकील 'पंडित टीका लाल टपलू' को मार दिया। 2 अक्टूबर को रिटायर्ड जज 'पंडित नीलकंठ गंजू' की हत्या कर दी, जिसने जेकेएलएफ के संस्थापक आतंकी मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी। 27 दिसंबर को पत्रकार 'प्रेमनाथ भट्ट' की भी हत्या की गयी। इन हत्याओं से दिल्ली में बैठी सरकार भी हिल गयी और मजबूरन उन्हें तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी की रिहाई के बदले में 5 खूंखार आतंकियों को छोड़ना पड़ा।
4 जनवरी 1990 को हिज्बुल मुजाहिद्दीन ने पंडितों को घाटी छोड़ने की धमकी देते हुए अखबारों में विज्ञापन छपवा दिया और पंडित बहुल इलाकों में बंदूक लेकर मार्च करने लगे। उनके घरों में बम फेंके जाने लगे। जगह जगह दीवारों पर समाज के प्रमुख लोगों की सूची चस्पा की जाने लगी। मस्जिदों से अनाउंसमेंट होने लगी। फिर आती है तारीख़ 19 जनवरी, 1990। पंडितों के लिए वो काली रात, जिसे वो आज भी याद करते हुए रो देते हैं। वो खौफनाक मंज़र उनकी आंखों के सामने याद करते हुए फिर से ज़िंदा हो जाता है। जब आतंकियों ने चुन चुन कर उनकी हत्याएं करनी शुरू कीं। मासूमों के सामने उनके बच्चों तथा बुजुर्गों के सामने उनके पोते पोतियों को मौत के घाट उतार दिया गया, ताकि वे आने वाली पीढ़ियों को इस कहानी के बारे में बताकर उनके मन में भी खौफ पैदा कर सकें। दूधमुंहे बच्चों को देखकर भी दया नहीं आई, उन्हें भी नहीं बख्शा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार रातों रात साढ़े चार लाख से ज़्यादा कश्मीरी पंडितों ने घाटी छोड़ दिल्ली और इससे सटे राज्यों में शरण ले लिया। जो पंडित रह गए, उनकी हत्याओं का सिलसिला 2004 तक जारी रहा। उनकी बच्चियों-महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं चलती रहीं।
क्या है राजनैतिक गलतियां?
जब ये सब हुआ तो उस समय केंद्र में वीपी सिंह प्रधानमंत्री थे, जिन्हें बीजेपी का समर्थन था। राज्य में राष्ट्रपति शासन था और राज्यपाल जगमोहन मल्होत्रा थे, जो बीजेपी के करीबी थे। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ये सब सिर्फ दो चार दिन में प्लान हुआ? घाटी में माहौल ख़राब तो 1987 से ही होने लगे थे, जब मुस्लिम फ्रंट की हार हुई। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में कश्मीर के राज्यपाल रहे जगमोहन मल्होत्रा ने पीएम गांधी को घाटी में फैल रही अशांति के बारे में पत्र लिखकर चेताया था। उन्होंने कहा था कि भारी मात्रा में पाकिस्तान से हथियार आ रहे हैं, घाटी का माहौल ख़राब करने की तैयारी हो रही है, लेकिन केंद्र सरकार ने उन चिट्ठियों को कूड़ेदान में डाल दिया। दिल्ली की सरकार गलतियों पर गलतियां करती रही। सबसे बड़ी ग़लती यह भी थी कि दिसंबर 1989 में तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती सईद की बेटी जान बचाने के लिए वीपी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने खूंखार आतंकियों को छोड़ दिया। इससे आतंकियों के हौसले और बुलंद हो गये।
जनवरी 1990 में प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मुफ्ती सईद के कहने पर जगमोहन मल्होत्रा को फिर से राज्यपाल की जिम्मेदारी दी। केंद्र सरकार के इस क़दम से कांग्रेस समर्थित नेशनल कांफ्रेंस की सरकार के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला नाराज़ हो गये और जब घाटी जल रही थी, अल्पसंख्यकों के घर जलाए जा रहे थे और उनकी हत्याएं हो रही थीं, उन्होंने इस फैसले के विरोध में इस्तीफा दे दिया। फिर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। अलग अलग रिपोर्ट्स की मानें तो जनवरी 1990 से अप्रैल 1990 तक लगभग 700 कश्मीरी पंडितों को मारा जा चुका था। इसके अलावा 'कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति' (KPSS) के अनुसार घाटी में रह रहे 75,300 परिवारों में से 1990-92 तक 70,000 परिवारों ने घाटी छोड़ दी और जो बच गए उन्होंने भी बाद के वर्षों में दूसरे राज्यों में अपना ठिकाना बना लिया।
ये सब सिर्फ कुछ दिनों का प्लान नहीं था, बल्कि 3-4 साल से इसकी तैयारी चल रही थी, जिसे तत्कालीन सरकारों ने जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया। लेखक-निर्देशक विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित फ़िल्म 'द कश्मीर फ़ाइल्स' इसी घटना की सच्चाई को बयां करती है।
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