रूस-यूक्रेन के बीच पिछले कुछ दिनों से चल रही खींचतान के बीच अंततः 24 फरवरी की सुबह (भारतीय समयानुसार) रूस ने यूक्रेन पर आधिकारिक तौर पर हमले की शुरुआत कर दी है। रूस ने यूक्रेन के ओडेसा, खारकीव और मारियुपोल जैसे शहरों में जबरदस्त बमबारी की है। रूसी सेना के हवाले से कहा गया है कि वो यूक्रेन की राजधानी कीव में प्रवेश कर चुके हैं। गत 22 फरवरी को ही रूस ने यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में दो विवादित क्षेत्रों 'लुहान्स्क' तथा 'दोनेत्स्क' को स्वतंत्र क्षेत्र घोषित कर दिया है, जिससे यूक्रेन रूस के खिलाफ और अधिक मुखर हो गया। ये दोनों क्षेत्र रूस समर्थित विद्रोहियों के असर वाला है, जो चाहते हैं कि यूक्रेन फिर से रूस में शामिल हो जाए। जबकि पश्चिमी यूक्रेन में रह रहे लोग यूक्रेन की सरकार का समर्थन कर रहे हैं और वो रूस में वापस शामिल होना नहीं चाहते हैं, इसलिए रूस लगातार पश्चिमी हिस्से में अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है। वही यूक्रेनी द्वीप क्रीमिया पर रूस का वर्ष 2014 से कब्जा है। हालांकि, रूस का मकसद यूक्रेनी जनता पर अत्याचार करना नहीं है, बल्कि वहां की सरकार को डराना है।
दरअसल, यूक्रेन के खिलाफ रूस का कड़ा रुख तब शुरू हुआ, जब से यूक्रेन ने नाटो में शामिल होने के लिए हामी भरी है। नाटो में शामिल देश (फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड, स्पेन, इटली, लातविया आदि) भी चाहते हैं कि यूक्रेन नाटो में शामिल हो जाए, जिससे उन्हें रूस को घेरने में आसानी हो सके और यही बात रूस भी कह रहा है कि यूक्रेन के नाटो में शामिल होने से रूस की राष्ट्रीय सुरक्षा ख़तरे में पड़ जाएगी। इसीलिए रूस ने शुरू से ही यूक्रेन के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार किया है। हालांकि, अब रूस की कड़ी सैन्य कार्रवाई से कमजोर पड़े यूक्रेन ने भी नाटो सदस्य देशों से मदद की अपील की है, लेकिन अभी तक नाटो की तरफ से यूक्रेन को किसी भी तरह की कोई मदद नहीं हो सकी है। इसकी उनकी अपनी मजबूरियां भी हैं। नाटो में शामिल अधिकतर देशों की पेट्रोलियम जरूरतें रूस पर निर्भर हैं। इसलिए अगर नाटो रूस के खिलाफ कोई भी कड़ा एक्शन लेता है तो नाटो में शामिल बड़े देशों की पेट्रोलियम तथा गैस की जरूरतों के खिलाफ रूस कोई भी बड़ा फैसला ले सकता है, जिससे उन यूरोपीय देशों के लिए दूरगामी परिणाम साबित होंगे। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के प्रतिनिधि 'टीएस त्रिमूर्ति' कहा है कि दोनों देशों को आपसी बातचीत के तहत मुद्दे को सुलझाना चाहिए। भारत में यूक्रेन के राजदूत 'डॉ. आइगॉर पॉलिखा' ने भारतीय प्रधानमंत्री से इस मामले में हस्तक्षेप करने की अपील की है और पीएम मोदी से रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से बात कर हमले को रोकने का निवेदन किया है। अब देखना यह होगा कि भारत सरकार की आगे की रणनीति क्या होती है।
भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या पड़ेगा प्रभाव?
रूस-यूक्रेन विवाद की वजह से हमारी भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इस पर भी हमें सोचना चाहिए। देखा जाए तो भारत दशकों से रूस का दोस्त रहा है। वर्ष 2019 में पीएम नरेंद्र मोदी को रूस का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'ऑर्डर ऑफ द हॉली अपोस्टल एंड्र्यू' (Order of the Holy Apostle Andrew) भी मिल चुका है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस युद्ध से सिर्फ़ भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। गुरुवार को भारत का शेयर बाजार गिरावट के साथ खुला और गिरावट के साथ ही बंद भी हुआ। निफ्टी 815 अंक तथा सेंसेक्स 2700 अंक गिरकर बंद हुआ। खबरों के मुताबिक इस क्राइसिस की वजह से भारत में सामान, पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस आदि के दामों में बढ़ोतरी संभव है। उत्तरी सागर से होकर आने वाले ब्रेंट कच्चे तेल (Brent Crude Oil) का दाम 100 डॉलर प्रति बैरल पहुंच चुका है, जोकि सितंबर 2014 के बाद से अपने उच्चतम स्तर पर है। जबकि यूएस (West Texas Intermediate) के अंदर निकलने वाले कच्चे तेल का दाम भी लगभग 95 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गया है। चूंकि रूस दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल निर्माता राष्ट्र है तथा उसने यूक्रेन के पूर्वी क्षेत्र में अपनी सेनाओं का जमावड़ा भी कर दिया है, जिससे अंतरराष्ट्रीय व्यापार में बाधा आ रही है।
ऐसे में विशेषज्ञों की मानें तो भारत में पेट्रोलियम से जुड़े पदार्थों के दामों में वृद्धि होगी तथा बड़े पैमाने पर राजकोषीय घाटा भी संभव है। भारत कच्चे तेल के अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दूसरे बाहरी क्षेत्रों पर मजबूर होगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक, अगर कच्चे तेल के दामों में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है तो हमें 15 बिलियन डॉलर अतिरिक्त दाम चुकाना पड़ेगा। भारत तेल से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने के लिए 80% हिस्सा निर्यात करता तथा वर्तमान में पूरे निर्यात का 25% दाम डॉलर में अदा करता है, लेकिन यह निर्यात बंद होने से भारत की करेंट अकाउंट डेफिसिट पर खासा असर पड़ेगा। तृतीय विश्व युद्ध की आहट को देखते हुए विदेशी निवेशकों ने जनवरी और फरवरी के महीने में भारत से 51 हजार करोड़ रुपए से अधिक निकाल लिए हैं और वो अब डॉलर की ओर रुख़ करेंगे, जिससे डॉलर के मुकाबले भारतीय करेंसी रुपया और कमजोर होगा। इस टेंशन के कारण भारत में निवेशकों के लगभग 10 लाख करोड़ रुपए घाटे में चले गए हैं।
तेल के अलावा और किन सामानों के दामों पर होगा असर-
इस क्राइसिस के कारण यूरोपीय क्षेत्रों में तनाव से तेल के अलावा भारत की जनता को खाद्य पदार्थों के दामों में भी इज़ाफ़ा होने से परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। इसके अलावा बिजली के दामों में भी अचानक बढ़ोतरी देखने को मिल सकती है। मालूम हो कि रूस पैलेडियम का सबसे बड़ा निर्यातक है, जो मोबाइल फोन से लेकर ऑटोमोटिव एग्जॉस्ट सिस्टम तक कई उत्पादों में इस्तेमाल होने वाली धातु है। अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र के द्वारा रूस के खिलाफ लगाए जा सकने वाले प्रतिबंधों के कारण धातु की आपूर्ति में कोई रुकावट इन उत्पादों की आपूर्ति श्रृंखला में भारी व्यवधान पैदा कर सकता है, जिससे इनकी कीमतें बढ़ सकती हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि रूस-यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के कारण गेहूं और बाकी फसलों के उत्पादन पर असर पड़ेगा। पाम तेल तथा सोयाबीन तेल की कीमतों पर भी असर पड़ सकता है।
युद्ध का परिणाम जो भी हो किंतु जैसी स्थिति अभी बनी हुई है, आने वाला समय रूस, यूक्रेन या नाटो देशों के लिए ही नहीं वरन सबके लिए चुनौतीपूर्ण होगा।
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