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रूस के खिलाफ पश्चिमी देश क्यों नहीं उठा रहे कठोर कदम?


रूस यूक्रेन के बीच जारी जंग के बीच खबर आ रही है कि रूस की शर्तों पर बेलारूस में यूक्रेन बातचीत करने के लिए सहमत हो गया है। अब तक इस युद्ध में सैकड़ों लोगों की जान जा चुकी है, जिनमें दोनों देशों के सैनिकों के साथ साथ यूक्रेन के आम लोग भी शामिल हैं। दोनों देश एक दूसरे को नुक़सान पहुंचाने को लेकर अलग अलग दावे कर रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार किसी भी द्विपक्षीय युद्ध में इस तरह के दावे होते रहते हैं ताकि एक तो उनका अपने लोगों के बीच रूतबा कायम रहे और दूसरा, दुश्मन के मनोबल को तोड़ा जा सके। इसी बीच नाटो सदस्य लगातार रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों की झड़ी लगाए हैं, जिससे रूस को कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ने वाला। हालांकि, बीते शनिवार (26 फरवरी) को ही यूएस, कनाडा, जर्मनी और यूके ने आपसी सहमति से रूसी बैंकों पर "स्विफ्ट बैन" लगा दिया है, जोकि एक बड़ा आर्थिक प्रतिबंध है। दूसरी ओर ब्रिटेन ने अपनी सेना के तीनों अंगों की टुकड़ियों को रूस के खिलाफ यूक्रेन भेजने की बात कह दी है।

क्या है नाटो और यूएनएससी की गलतियां?

रूस के भीषण कहर से यूक्रेन को बचाने के चक्कर में यूरोपीय देश बार बार गलतियां कर रहे हैं। उन्होंने सिर्फ छोटे मोटे आर्थिक प्रतिबंधों के अलावा (SWIFT BANको छोड़) कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं, जिससे रूस को चोट पहुंच सके। इसका ये कारण है कि रूस को सबक सिखाने को लेकर कोई भी पश्चिमी देश अपना नुक़सान करना नहीं चाहता। तेल और गैस को लेकर पश्चिमी देशों की रूस पर निर्भरता काफ़ी हद तक है। जिस पर वे रिस्क लेना नहीं चाह रहे हैं। फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन जैसे देश बार बार भारत की तरफ देख रहे हैं कि भारत सरकार यूक्रेन के समर्थन में बोले। इस संकट में अभी तक जर्मनी की भूमिका जटिल रही है। नवनिर्वाचित चांसलर ओलाफ़ स्कोल्ज़ ने पदभार ग्रहण करते ही देश में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने का वादा किया था, लेकिन फिलहाल वो अपनी पार्टी की अंदरूनी कलह से जूझ रहे हैं और इस संकट (यूक्रेन) पर जर्मनी के उद्योगपति बारीकी से उनकी हर कदम पर नज़र रख रहे हैं। जर्मनी का रूख इसलिए भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है, क्योंकि बाल्टिक सागर में रूस से जर्मनी तक गैस पाइपलाइन का कार्य पूरा हो गया है, लेकिन चालू नहीं हुआ है। सवाल यह है कि क्या ओलाफ़ इस पाइपलाइन को चालू करने की दिशा में आगे बढ़ेंगे, जो जर्मनी के काफ़ी मायने रखता है या फिर इस 'नॉर्ड स्ट्रीम 2' (गैस पाइपलाइन, बाल्टिक सागर में रूस से जर्मनी तक) को खत्म करेंगे।

देखा जाए तो पश्चिमी देश (नाटो तथा गैर नाटो सदस्य देश) अपने ही सामाजिक, राष्ट्रीय तथा जनता के हितों को लेकर उलझे हुए हैं। वो खुलकर रूस के खिलाफ तो हैं, लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा कि रूस को करारा जवाब कैसे दिया जाए। नाटो का यह कर्तव्य बनता है कि यूरोप की शान्ति पर धब्बा लगाने वाले के खिलाफ कारवाई करे, परंतु नाटो महासचिव स्टोल्टनबर्ग ने पहले ही ये बोलकर अपने हाथ खड़े कर लिए हैं कि नाटो की फ़ौज यूक्रेन में रूस से लड़ने नहीं जाएगी। वहीं यूक्रेन के राष्ट्रपति बार बार नाटो तथा अन्य देशों से मदद की अपील कर रहे हैं।

25 फरवरी को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमेरिका ने निंदा प्रस्ताव पेश किया, जिस पर रूस ने अपना 'वीटो पॉवर' लगाकर प्रस्ताव को पारित होने से रोक दिया, जबकि अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन सहित 11 देशों ने प्रस्ताव का समर्थन किया। वहीं भारत, चीन तथा यूएई ने वोटिंग से अलग रहने का फैसला किया। 27 फरवरी को भी अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र महासभा की विशेष बैठक बुलाकर फिर से निंदा प्रस्ताव पेश किया और फिर रूस ने वीटो लगा दिया और भारत वोटिंग से अलग रहा।

संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व स्थायी प्रतिनिधि 'सैय्यद अकबरुद्दीन' के अनुसार, 'यह प्रस्ताव रूस की कड़ी निंदा करने के बजाय महज़ एक खानापूर्ति था, क्योंकि इस प्रस्ताव में यूएन चार्टर के चैप्टर VII को शामिल ही नहीं किया गया था, जो किसी भी देश के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को ठेस पहुंचाने पर उसकी निंदा करता है।' हम सब जानते हैं कि रूस अपने खिलाफ किसी भी प्रस्ताव पर वीटो कर देगा, फिर भी प्रस्ताव लाया जाता है, वोटिंग होती और अंततः वो कागज़ का टुकड़ा कूड़ेदान में चला जाता है। यह सिर्फ़ और सिर्फ़ शक्ति प्रदर्शन भर है कि कौन देश किसके साथ खुलकर खड़ा है।

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